Rajasthan Congress crisis : असल ज़िंदगी से लेकर राजनीतिक ज़िंदगी तक अपनी जादूगरी के लिए मशहूर अशोक गहलोत (Ashok Gehlot), क्या इस बार भविष्य की रणनीति को समझने में ग़लती कर गए? यह सवाल इसलिए क्योंकि दो दिनों तक गहलोत गुट में दिखने वाले क़रीब आधे दर्ज़न विधायक अब खुलकर कांग्रेस आलाकमान के समर्थन में आ चुके हैं. ख़बर है कि राजस्थान संकट (Rajasthan Crisis) के मद्देनजर पार्टी पर्यवेक्षक अजय माकन (Ajay Maken) ने राजस्थान के संसदीय कार्य मंत्री शांति धारीवाल के घर हुई बैठक को अनुशासनहीनता बताते हुए ऐक्शन के संकेत दिए हैं.
संभावना यह भी जताई जा रही है कि मुख्यमंत्री गहलोत (CM Gehlot) के वफादार माने जाने वाले कुछ नेताओं के खिलाफ ‘अनुशासनहीनता' के आरोप में कार्रवाई हो सकती है. क्या यही वजह है कि विधायकों ने आलाकमान का मूड भांपते हुए पाला बदलना शुरू कर दिया है.
राहुल गांधी के दुश्मन कौन?
भारत जोड़ो यात्रा (Bharat Jodo Yatra) से अपनी छवि को बेहतर करने की कोशिश में लगे राहुल गांधी के लिए परेशानी का सबब, उनके अपने क़रीबी ही बन रहे हैं. शायद यही वजह है कि कांग्रेस की कार्यकारी चेयरपर्सन सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) पूरे घटनाक्रम को लेकर बेहद सख्त नजर आ रही हैं.
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क्या कांग्रेस आलाकमान के लिए अब ज़रूरी है कि वह आपस की गुटबाजी रोकने के लिए सख़्त फैसले लें? क्योंकि 'आज़ाद' होने वाले नेताओं को रोकना वैसे भी उनके लिए मुश्किल है.
कांग्रेस पार्टी का अस्तित्व ख़त्म
ऐसे में अगर पार्टी के अंदर अलग-अलग गुट उभरने लगे तो कांग्रेस पार्टी का अस्तित्व भी ख़त्म हो जाएगा. लगभग डूब चुकी कांग्रेस के लिए अब राजनीतिक साख बचाने से ज़्यादा, पार्टी को बचाना ज़रूरी है.
तो क्या गहलोत एपिसोड के बाद कांग्रेस का सख़्त रवैया देखने को मिलेगा या पहले की तरह ही मौक़े दिए जाएंगे...
आज इन्हीं तमाम मुद्दों पर होगी बात, आपके अपने कार्यक्रम में जिसका नाम है 'मसला क्या है?'.
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कांग्रेस नेतृत्व को धमका रहे मंत्री
जयपुर में रविवार को हुई कांग्रेस विधायक दल की बैठक के बाद जो कुछ हुआ वह कांग्रेस के लिए बतौर पार्टी ठीक नहीं था. विरोधी पहले ही राहुल गांधी को कमज़ोर बताकर कांग्रेस का लगभग सत्यानाश कर चुके हैं. रही-सही कसर अब उनके अपने ही लोग कर रहे हैं.
राजस्थान सरकार में मंत्री शांति धारीवाल ने बैठक के बाद कहा 'आज हाईकमान में बैठा हुआ कोई आदमी ये बता दे कि कौन से दो पद हैं अशोक गहलोत के पास जो आप उनसे इस्तीफ़ा मांग रहे हो. कुल मिलाकर एक पद है मुख्यमंत्री का, जब दूसरा पद मिल जाए तब जाकर बात उठेगी. ये सारा षडयंत्र है....जिस षडयंत्र ने पंजाब खोया, वो राजस्थान भी खोने जा रहा है. हम लोग संभल जाएं, तभी राजस्थान बचेगा, वरना राजस्थान भी हाथ से जाएगा.'
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शांति धारीवाल की भाषा से ऐसा लग रहा है कि वह कांग्रेस आलाकमान को सीधे-सीधे धमकाते हुए कह रहे हैं कि बात मान लो नहीं तो पंजाब के बाद अब राजस्थान भी जाएगा. यही वजह है कि अजय माकन और खड़गे की रिपोर्ट में रविवार और सोमवार के घटनाक्रम को कांग्रेस हाईकमान को सीधी चुनौती और अनुशासन तोड़कर पार्टी की छवि खराब करने वाला बताया गया है.
अजय माकन बेहद नाराज़
पर्यवेक्षक अजय माकन ने मीडिया के सामने जो कुछ कहा, उससे मालूम चलता है कि गहलोत गुट को लेकर नाराज़गी बढ़ने वाली है. माकन ने बताया कि कांग्रेस विधायक प्रताप खाचरियावास और एस धारीवाल ने उनसे मुलाकात की और तीन मांगें रखीं.
गहलोत गुट की पहली मांग थी कि 19 अक्तूबर को कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के बाद नया मुख्यमंत्री चुना जाए और प्रस्ताव को इसके बाद ही अमल में लाया जाए.
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इसके जवाब में माकन ने कहा कि ऐसा करना हितों का सीधा टकराव माना जाएगा. क्योंकि आज अगर गहलोत को हटाया जाता है और वह अध्यक्ष चुन लिए जाते हैं तो प्रस्ताव पर अंतिम फ़ैसला गहलोत ही लेंगे. ऐसा कैसे हो सकता है?
गहलोत गुट की दूसरी शर्त थी कि पर्यवेक्षक विधायकों के साथ अलग-अलग नहीं बल्कि समूह में चर्चा कर ही उनकी राय जानें. इसके जवाब में अजय माकन ने कहा- आलाकमान ने विधायकों से अलग-अलग बात करने के निर्देश दिए हैं, ताकि विधायक खुलकर अपनी बात रख सकें.
गहलोत गुट की तीसरी शर्त थी कि मुख्यमंत्री उन 102 विधायकों में से चुना जाए, जो 2020 में राजनीतिक संकट के दौरान सरकार के पक्ष में खड़े थे. इसके जवाब में माकन ने कहा कि विधायकों से बात कर आलाकमान को बता दिया जाएगा, वह वरिष्ठ नेताओं से बात कर अपने विवेक से फैसला लेंगी.
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अशोक गहलोत की मंशा क्या?
इस पूरे घटनाक्रम से साफ़ है कि अशोक गहलोत या तो मुख्यमंत्री पद छोड़ना ही नहीं चाहते या फिर वह किसी भी सूरत में सचिन पायलट को मुख्यमंत्री की कुर्सी देने को तैयार नहीं हैं. जबकि गहलोत गुट की तरफ से कांग्रेस आलाकमान को संदेश यह दिया जा रहा है कि साल 2020 में जब कांग्रेस सरकार पर संकट आयी थी, तब सरकार गिराने की साज़िश में शामिल रहने वाले नेताओं को उनका गुट कुर्सी देने को तैयार नहीं है.
हालांकि गहलोत गुट के आधा दर्ज़न विधायक अपने पुराने स्टैंड से पलटी मार रहे हैं. गहलोत कैंप में शामिल विधायक खुशवीर सिंह जोजावर ने मंगलवार को कहा कि वह आलाकमान के साथ हैं और जो भी फैसला किया जाएगा वह उन्हें मंजूर है.
विधायक जितेंद्र सिंह ने भी कहा है कि वह आलाकमान के साथ हैं और जिसे भी सीएम बनाया जाएगा उसको समर्थन करेंगे. उन्होंने इस संबंध में एक वीडियो भी जारी किया है. वहीं गहलोत कैंप की बैठक में शामिल रहे मदन प्रजापति ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए, पायलट को सीएम बनाने तक की मांग कर दी है.
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विधायक गंगा देवी ने अपने इस्तीफे के फ़ैसले से इनकार करते हुए कहा है कि आलाकमान का हर फैसला उन्हें मंजूर होगा.
हालात भांप नहीं पाई कांग्रेस
अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर चल रही रस्साकशी पहले भी होती रही है. ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस आलाकमान क्या हालात को भांप नहीं पाए? क्या उन्होंने अपना होमवर्क नहीं किया था? क्या यह बेहतर नहीं होता कि कांग्रेस आलाकमान पहले दोनों नेताओं को दिल्ली बुलाकर ही बात कर लेते? बिना किसी से बात किए खड़गे और माकन को सीधे जयपुर भेजने का फ़ैसला ग़लत साबित हुआ. क्या आलाकमान, यह मान रहा था कि पुराने और वफ़ादार होने के नाते गहलोत, पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद, पायलट को सीएम बनाने के लिए चुपचाप राज़ी हो जाएंगे?
ऐसे में कांग्रेस आलाकमान की अनुभवहीनता भी उजागर हो रही है. क्योंकि वह जिसे कांग्रेस अध्यक्ष बनने के लायक मानती है वही शीर्ष नेतृत्व की बात मानने को तैयार नहीं है. कांग्रेस के लिए इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है?
गहलोत ने जिस तरह पार्टी नेतृत्व के दूत अजय माकन और खड़गे को कांग्रेस विधायकों से बारी-बारी से मिलने नहीं दिया, क्या इससे पार्टी में सोनिया गांधी के वर्चस्व पर भी सवाल खड़े नहीं होते हैं?
नेतृत्व की नरमी पार्टी ख़त्म कर रही
कांग्रेस आलाकमान अब तक पुराने लोगों के साथ नरमी बरतती रही है. यही वजह है कि कांग्रेस के अंदर ही जी 23 नाम से बने असंतुष्ट नेताओं के संगठन को आलाकमान ने ना तो खारिज किया और ना ही उन्हें निकाला.
यह अलग बात है कि कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद सरीखे वरिष्ठ नेता ख़ुद ही पार्टी छोड़ गए. लेकिन आलाकमान ने कभी भी मार्गदर्शक मंडल जैसा ग्रुप बनाकर उन्हें अलग करने का फ़ैसला नहीं लिया. तो क्या पार्टी आलाकमान की यह नरमी अब पार्टी नेतृत्व पर ही भारी पड़ने लगी है?