हाइलाइट्स

  • J-K प्रदेश कैंपेन कमेटी के अध्यक्ष बनाए जाने से नाराज़
  • दो घंटे बाद ही आज़ाद ने अपने पद से दिया था इस्तीफ़ा
  • फिर प्रदेश कांग्रेस की कमान संभालना चाह रहे थे आज़ाद
  • आज़ाद ने कैंपेन कमेटी के अध्यक्ष बनाए जाने को डिमोशन बताया था

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Rahul Gandhi की नाकामी से परेशान थे Ghulam Nabi Azad या वजह कुछ और ही है?

Ghulam Nabi Azad ने Sonia Gandhi को लिखे अपने पांच पन्नों की चिट्ठी में यह बताया है कि कांग्रेसे में रहते हुए उन्होंने कितनी बड़ी जिम्मेदारी निभाई है. लेकिन जम्मू-कश्मीर में अपने गिरते कद को वह सहन नहीं कर पाए. 

Rahul Gandhi की नाकामी से परेशान थे Ghulam Nabi Azad या वजह कुछ और ही है?

Ghulam Nabi Azad quits congress : अगस्त महीने का यह आख़िरी शनिवार, दो वजहों से बेहद सुर्खियों में है. पहला पिछले 51 सालों से कांग्रेस के साथी रहे ग़ुलाम नबी आज़ाद ने आख़िरकार पार्टी का दामन छोड़ दिया. वहीं पार्टी छोड़ने से पहले उन्होंने कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को 5 पन्नों का इस्तीफा पत्र लिखा, जिसमें राहुल गांधी की राजनीति में एंट्री, पार्टी के अंदर की सलाह लेने की प्रक्रिया को ख़त्म करने और अनुभवी नेताओं को किनारे कर, ग़ैर अनुभवी और चापलूसों को पार्टी के मामलों में प्राथमिकता दी जाने की बात कही गई है. कांग्रेस के लिए मुश्किल यह है कि उनके नेता बारी-बारी से पार्टी छोड़ रहे हैं. एक दिन पहले ही कांग्रेस के युवा प्रवक्ता जयवीर शेरगिल ने भी पार्टी से इस्तीफा दे दिया था. उनसे पहले आनंद शर्मा ने हिमाचल प्रदेश की संचालन समिति छोड़ी थी. साल 2022 में हार्दिक पटेल, सुनील जाखड़ समेत कई बड़े नाम कांग्रेस से अलग हो चुके हैं. वैसे ग़ुलाम नबी जैसे नेताओं का आज़ाद होना, यह बता रहा है कि कांग्रेस अब पूरी तरह से नए रास्ते पर चलने को तैयार है.

वहीं आज की दूसरी बड़ी ख़बर है सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना (NV Ramana) के कार्यकाल का खत्म होना. 26 अगस्त, 2022 को एनवी रमन्ना का बतौर मुख्य न्यायाधीश कार्यकाल ख़त्म हो गया है. मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना का कार्यकाल इसलिए भी यादगार रहेगा, क्योंकि उन्होंने जब अपने पद की बागडोर संभाली थी तब उनके दो पूर्ववर्ती मुख्य न्यायाधीशों का कार्यकाल विवादों से घिरा था. हालांकि जाते-जाते मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना की खंडपीठ ने वर्ष 2007 के गोरखपुर दंगा मामले में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बड़ी राहत देते हुए, उनके ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने के लिए की गई अपील को ख़ारिज कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा है कि याचिका में कोई मेरिट नहीं है.

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कांग्रेस से 'आज़ाद' होने से पहले का सफर

ख़ैर सबसे पहले बात ग़ुलाम नबी आज़ाद की. ग़ुलाम नबी आज़ाद, जम्मू इलाक़े से आते हैं और पार्टी के पुराने और अनुभवी नेता रहे हैं. वे पिछले साल फ़रवरी महीने तक राज्यसभा में विपक्ष के नेता रह चुके हैं. वह तीन साल जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. दो सालों तक जम्मू-कश्मीर युवा कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हैं. लगभग 37 सालों तक कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव भी रहे. सात सालों तक राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे. इंदिरा गांधी, नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में केंद्रीय मंत्री रहे. इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया गांधी तक, ग़ुलाम नबी आज़ाद सबके गुड लिस्ट में रहे. फिर इस तरह विदाई की क्या वजह रही?

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क्यों नाराज़ थे गुलाम नबी आज़ाद?

इसी महीने 16 अगस्त को कांग्रेस ने आजाद को जम्मू-कश्मीर प्रदेश कैंपेन कमेटी का अध्यक्ष बनाया था, तभी से वह हाईकमान के फैसलों से नाराज बताए जा रहे थे. नाराज़गी का आलम ये था कि आजाद ने अध्यक्ष बनाए जाने के 2 घंटे बाद ही पद से इस्तीफा दे दिया. इस्तीफा देते हुए उन्होंने इस पद को अपना डिमोशन बताया था.

राजनीतिक जानकारों की मानें तो 73 वर्षीय आज़ाद, अपनी सियासत के आखिरी पड़ाव में एक बार फिर से प्रदेश कांग्रेस की कमान संभालना चाह रहे थे. लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने उनकी बजाय 47 साल के विकार रसूल वानी को ये जिम्मेदारी दे दी. हालांकि वानी, गुलाम नबी आज़ाद के बेहद करीबी हैं. लेकिन आज़ाद को कांग्रेस आलाकमान का यह फ़ैसला रास नहीं आया. उनका मानना है कि कांग्रेस पार्टी, जान-बूझकर उनके करीबी नेताओं को उनसे अलग कर रही है.

पहले भी हाईकमान से रही खटपट

आज़ाद की कांग्रेस हाईकमान से खटपट पहले भी रही थी. ग़ुलाम नबी आज़ाद 2 नवम्बर 2005 से 11 जुलाई 2008 तक जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे थे. लेकिन साल 2008 में जब उन्हें सीएम पद से हटाया गया तब कांग्रेस आलाकमान से उनकी खटपट हो गई थी. हालांकि इसके बाद 2009 में आंध्र प्रदेश कांग्रेस में जब विवाद शुरू हुआ तो इसे सुलझाने की ज़िम्मेदारी आज़ाद को दी गई. इसके बाद वो एक बार फिर गुड लिस्ट में शामिल हो गए. जिसके बाद उन्हें 2009 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री की ज़िम्मेदारी दी गई. 26 मई 2014 तक बतौर केंद्रीय मंत्री, उनका कार्यकाल रहा. लेकिन इस बार अपने डिमोशन से वह इतने ख़फा हुए कि पार्टी से अलग होने का फैसला ले लिया.

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पांच पन्नों की चिट्ठी को अगर ध्यान से पढ़ें तो आज़ाद की बेबसी समझ आती है. ऐसा लगता है कि वो नए लोगों को ज्यादा तवज्जो देने के ख़िलाफ़ हैं. लेकिन राहुल गांधी के सामने नए सिरे से पार्टी को संभालने की जिम्मेदारी है. उन्हें ना केवल पुराने लोगों को समेटना है बल्कि वर्तमान के नाव में सवार होकर भविष्य की यात्रा तय करनी है. और इसके लिए राहुल गांधी शायद पुराने लोगों को साइड करने की तैयारी कर चुके हैं. यह फ़ैसला ग़लत है या सही, इस पर चर्चा बाद में. सबसे पहले एक बार ग़ुलाम नबी आज़ाद के उस ख़त को हूबहू पढ़ते हैं. बिना किसी लाग लपेट के.

ग़ुलाम नबी आज़ाद की चिट्ठी

मैंने 1970 के मध्य जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस तब ज्वॉइन की, जब इस पार्टी के इतिहास को देखते हुए इससे जुड़ना गलत माना जाता था. इन सबसे प्रभावित हुए बिना, छात्र जीवन से ही मैं आजादी की अलख जगाने वाले गांधी, नेहरू, पटेल, अबुल कलाम आजाद, सुभाष चंद्र बोस के विचारों से प्रभावित था. संजय गांधी के कहने पर मैंने 1975-76 में जम्मू-कश्मीर यूथ कांग्रस की अध्यक्षता संभाली. कश्मीर यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रैजुएशन के बाद 1973-75 तक मैं कांग्रेस के ब्लॉक जनरल सेक्रेटरी का जिम्मा भी संभाल रहा था.

1977 के बाद संजय गांधी के नेतृत्व में यूथ कांग्रेस के जनरल सेक्रेटरी के पद पर रहते हुए मैं हजारों कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ एक जेल से दूसरी जेल गया. तिहाड़ जेल में मेरा सबसे लंबा समय 20 दिसंबर 1978 से जनवरी 1979 तक था. तब मैंने इंदिरा गांधी जी की गिरफ्तार के खिलाफ जामा मस्जिद से संसद भवन तक विरोध रैली निकाली थी.

हमने जनता पार्टी की व्यवस्था का विरोध किया और उस पार्टी के कायाकल्प का रास्ता बनाया, जिसकी नींव 1978 में इंदिरा गांधी जी ने रखी थी. 3 साल के महान संघर्ष के बाद 1980 में कांग्रेस पार्टी दोबारा सत्ता में लौटी. संजय गांधी की दुखद मृत्यु के बाद 1980 में मैं यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष बना. प्रेसिडेंट रहते हुए मुझे आपके पति राजीव गांधी को यूथ कांग्रेस में नेशनल काउंसिल मेंबर के तौर पर शामिल करने का सौभाग्य मिला. 1981 में कांग्रेस के स्पेशल सेशन के दौरान राजीव गांधी यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए. यह भी मेरी ही अध्यक्षता में हुआ.

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1982 से इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पीवी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में मैंने केंद्रीय मंत्री के तौर पर अपनी सेवाएं दीं. 1980 के मध्य से हर कांग्रेस अध्यक्ष के साथ मुझे पार्टी में महासचिव के तौर पर काम करने का मौका भी मिला. मैं राजीव गांधी के कांग्रेस पार्लियामेंट्री बोर्ड का अध्यक्ष बनने से लेकर उनकी दुखद हत्या तक सदस्य रहा. इसके बाद नरसिम्हा राव के समय भी ये जिम्मेदारी तब तक संभाली, जब तक अक्टूबर 1992 में उन्होंने इसे पुनर्गठित करने का फैसला नहीं कर लिया.

मैं लगातार 4 दशक तक कांग्रेस वर्किंग कमेटी का भी सदस्य रहा. 35 साल तक मैं देश के हर राज्य और केंद्र शासित प्रदेश में पार्टी का जनरल सेक्रेटरी इनचार्ज भी रहा. मैं यह बताते हुए खुश हूं कि जिन राज्यों में मैं इनचार्ज रहा, उनमें से 90% में कांग्रेस को जीत मिली.

मैं ये सब इसलिए गिना रहा हूं ताकि इस महान संस्था में दिए गए मेरे योगदान को देख लिया जाए. राज्यसभा में मैंने लीडर ऑफ अपोजिशन के तौर पर 7 साल तक काम किया. मैंने अपनी सेहत और अपने परिवार को दांव पर रखते हुए, अपने जीवन का हर लम्हा कांग्रेस की सेवा में दिया.

बेशक कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर आपने यूपीए-1 और यूपीए-2 के गठन में शानदार काम किया. इस सफलता का सबसे बड़ा कारण यह था कि आपने अध्यक्ष के तौर पर बुद्धिमान सलाहकारों और वरिष्ठ नेताओं के फैसलों पर भरोसा किया, उन्हें ताकत दी और उनका ख्याल रखा.

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दुर्भाग्य से राजनीति में राहुल गांधी की एंट्री और खासतौर पर जब आपने जनवरी 2013 में उन्हें उपाध्यक्ष बनाया, तब राहुल ने पार्टी में चली आ रही सलाह के मैकेनिज्म को तबाह कर दिया. सभी वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं को साइड लाइन कर दिया गया और गैरअनुभवी चापलूसों का नया ग्रुप बन गया, जो पार्टी चलाने लगे.

सबसे ज्वलंत उदाहरण वह है, जब राहुल गांधी ने सरकार के अध्यादेश को पूरे मीडिया के सामने टुकड़े-टुकड़े कर डाला. कांग्रेस कोर ग्रुप ने ही यह अध्यादेश तैयार किया था. कैबिनेट और राष्ट्रपति ने इसे मंजूरी दी थी. इस बचकाना हरकत ने भारत के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के औचित्य को खत्म कर दिया.

किसी भी चीज से ज्यादा यह इकलौती हरकत 2014 में यूपीए सरकार की हार की बड़ी वजह थी. इसके चलते राइट विंग और कारोबारी फायदों का एक गठजोड़ हुआ और उसने एक दुष्प्रचार का कैंपेन चलाया.

अपने समर्थकों से तैयार रहने को बोले आज़ाद

जानकारी मिली है कि आज़ाद ने अपने समर्थकों से कहा है कि वह तैयार रहें. क्योंकि वह जम्मू-कश्मीर आ रहे हैं. सवाल उठता है कि क्या वह बीजेपी की तरफ जा सकते हैं? ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि आपको याद होगा, 15 फरवरी 2021 को जब आज़ाद का राज्यसभा का कार्यकाल ख़त्म हो रहा था तो उन्हें विदाई देते हुए PM नरेंद्र मोदी भावुक हो गए थे. इतना ही नहीं मोदी सरकार ने 2021 में गुलाम नबी आजाद को पद्म भूषण सम्मान भी दिया था.

मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना का कार्यकाल

अब एक नजर मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना के कार्यकाल पर... मुख्य न्यायाधीश रमन्ना का कार्यकाल पहले के दो चीफ जस्टिस के मुक़ाबले बेहतर रहा. रंजन गोगोई को अपने ही ख़िलाफ़ दायर एक याचिका पर अपने ही कोर्ट में सुनवाई करनी पड़ी थी. जबकि शरद अरविंद बोबडे के कार्यकाल के दौरान सुप्रीम कोर्ट की छवि को लेकर काफी चर्चा रही थी.

कहा जा सकता है कि इन मामलों में रमन्ना ख़ुशक़िस्मत रहे. हालांकि उनके कार्यकाल में कुछ महत्वपूर्ण मामले लंबित ही रह गए. कई जानकार मानते हैं कि रमन्ना ने खुद को विवादों से दूर रखने के लिए भी ऐसा किया.

लंबित रह गए ये मामले

- जम्मू कश्मीर में संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाया जाना जिसको चुनौती देने वाली 23 याचिकाएं तभी से लंबित हैं.

- UAPA जैसे क़ानून को निरस्त करना

- कर्नाटक के शिक्षण संस्थाओं में हिजाब पर प्रतिबंध का मामला

- नागरिकता संशोधन क़ानून को निरस्त करना

- इलेक्टोरल बॉण्ड को सार्वजनिक करना

हालांकि जाते-जाते चीफ़ जस्टिस ने दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के अधिकार क्षेत्र से संबंधित याचिका के लिए संवैधानिक पीठ का गठन करने की घोषणा ज़रूर कर दी है. एक बात और है, जस्टिस रमन्ना को उनकी टिप्पणियों और उनके भाषणों की वजह से भी ख़ूब याद किया जाएगा. एक नज़र उनके कुछ भाषणों और टिप्पणियों पर, जिसकी खूब चर्चा रही.

जस्टिस रमन्ना की वो बातें जिसपर हुई खूब चर्चा

  • आंध्र प्रदेश के एक विश्वविद्यालय में बतौर मुख्य अतिथि मंच को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि "उच्च शिक्षा प्रदान करने वाले संस्थान इसलिए अपना सामाजिक औचित्य खोते जा रहे हैं क्योंकि ये फैक्ट्रियों की तरह काम कर रहे हैं. और ये फैक्ट्रियां कुकुरमुत्ते की तरह पनप भी रही हैं."
  • इसी महीने की 24 तारीख को एक याचिका की सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना ने टिप्पणी की कि 'देश में रिटायर होने वालों की कोई क़द्र नहीं है.'
  • पिछले महीने जस्टिस रमन्ना ने व्याख्यान में न्यायाधीशों को सलाह देते हुए कहा कि, 'भावनात्मक आवेश से प्रभावित होने से बचना चाहिए'. उनका मानना था कि इस तरह का भावनात्मक आवेश दरअसल सोशल मीडिया के ज़रिये ही ज़्यादा बढ़ रहा है.
  • मीडिया ट्रायल का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा था कि 'इंसाफ़ की कुर्सी पर बैठे न्यायाधीशों को सचेत' रहने की ज़रुरत है. ज़रूरी नहीं है कि 'बढ़ा हुआ शोर यह सुनिश्चित ही करता हो कि यही सही है और बहुसंख्यक किस पर विश्वास करते हैं.'
  • इंटरनेट की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था कि हर दिन आते नए टूल्स में इतनी क्षमता है कि किसी भी मुद्दे को बढ़ा-चढ़ा कर या तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा सके.
  • 'कुछ वर्षों के अंतराल में एक बार लोगों को शासक को बदलने का अधिकार जो मिला है, उसे तानाशाही के ख़िलाफ़ किसी भी तरह की सुरक्षा की गारंटी नहीं माना जाना चाहिए.'
  • जो रोज़मर्रा के राजनीतिक संवाद होते हैं या जो चुनावी प्रक्रिया होती है और जिनके दौरान विरोध और आलोचना भी होती है वो मूलतः लोकतांत्रिक ढांचे का ही महतवपूर्ण और अभिन्न अंग हैं.
  • सिर्फ़ इतना ही मान लेना कि आख़िरकार जनता ही संप्रभु है, ये काफ़ी नहीं है. इस बात को 'मानवीय गरिमा और स्वायत्तता के विचार' में भी परिलक्षित होना चाहिए.
  • 'क़ानून का शासन', व्याख्यान पर बोलते हुए मुख्य न्यायाधीश ने इसकी तुलना दोधारी तलवार से की है. उनके अनुसार इसका इस्तेमाल दोनों तरह से हो सकता है - "न्याय के निष्पादन के लिए भी और उत्पीड़न के लिए भी.'
  • 'क़ानून के शासन' के लिए न्यायपालिका का स्वतंत्र होना बेहद ज़रूरी है. प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीक़े से न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है. अगर ऐसा हुआ तो 'क़ानून का शासन' महज एक दिखावा ही बन कर रह जाएगा."
  • 'कानून का शासन' विषय पर बोलते हुए वकीलों के लिए भी कई सुझाव दिए. उन्होंने कहा कि पहले से बनायी हुई धारणा ही नाइंसाफ़ी को बढ़ावा देती है. उन्होंने अल्पसंख्यकों का ज़िक्र करते हुए कहा कि इंसाफ़ करते हुए ऐसे समूहों की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए.

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