हाइलाइट्स

  • उत्तराखंड के चमोली में पैदा हुए थे दरबान सिंह नेगी
  • ला बासी में जर्मन सैनिकों से हुआ गढ़वाल रेजिमेंट का सामना
  • कमांडिंग ऑफिसर कर्नल गॉर्डोन ने दी शाबाशी

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Darwan Singh Negi : गढ़वाल राइफल्स का वो सैनिक जिसने पहले विश्वयुद्ध में जर्मनी को हराया था | Jharokha

Darwan Singh Negi : प्रथम विश्व युद्ध में दरबान सिंह नेगी ने ब्रिटेन की ओर से लड़ाई लड़ी थी और अपने अदम्य साहस के बूते जर्मनी की सेना को हराया था. ब्रिटेन ने इन्हें विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया था... आइए जानते हैं इनकी कहानी को..

Darwan Singh Negi : गढ़वाल राइफल्स का वो सैनिक जिसने पहले विश्वयुद्ध में जर्मनी को हराया था | Jharokha

Darwan Singh Negi : पहाड़ी राज्य उत्तराखंड भारत को सबसे ज्यादा सैनिक देने वाले राज्यों में से एक है. राइफलमैन जसवंत सिंह रावत (Rifleman Jaswant Singh Rawat) से लेकर देश के पहले सीडीएस रहे जनरल बिपिन रावत (General Bipin Rawat) तक, इस पहाड़ी राज्य ने मां भारती को कई वीर सपूत दिए हैं. सदियों पहले भी इसी धरती पर एक ऐसे सपूत ने जन्म लिया था जिसका नाम आज भी राज्य और देश को गर्व से भर देता है. तब भारत गुलाम था और इस सैनिक ने ब्रिटेन की ओर से जर्मनी के खिलाफ पहला विश्वयुद्ध (first world war) लड़ा था.

गढ़वाल राइफल्स (Garhwal Rifles) ने तब इसी सैनिक के बूते न सिर्फ जर्मनी की सेना को शिकस्त दी थी बल्कि पहाड़ी रणबांकुरे दरबान सिंह नेगी को उनके अदम्य साहस के लिए विक्टोरिया क्रॉस (Victoria Cross) से भी सम्मानित किया गया था. सैनिक को सम्मान दिया था ब्रिटेन सम्राट ने... सम्राट ने सम्मान देते हुए जब सैनिक से पूछा कि उसकी इच्छा क्या है, तब उसने कहा था- मैं चाहता हूं मेरे गांव में एक स्कूल हो....

वह नहीं चाहता था कि जिस वजह से वह शिक्षा से दूर रहा, आने वाली पीढ़ियां भी उस दौर से गुजरे. आज झरोखा में दरबान सिंह नेगी का जिक्र इसलिए क्योंकि आज ही के दिन 1914 में गढ़वाल राइफल्स के मुट्ठी भर सैनिकों ने जर्मनी को उसके ठिकाने में घुसकर मात दी थी.... और इस जंग का नेतृत्व उन्होंने ही किया था...

उत्तराखंड के चमोली में पैदा हुए थे दरबान सिंह नेगी

किस्सा शुरू करें उससे पहले दरबान सिंह नेगी के बारे में जान लेते हैं. सूबेदार दरबान सिंह नेगी जहां पैदा हुए थे वह आज चमोली जिला (Chamoli District in Uttarakhand) है... जगह थी पट्टी काराकोट का गांव कफारतीर. 3 भाइयों और 2 बहनों में दूसरे नंबर पर थे. 19वीं सदी के आखिर में यह जगह जाहिर है बहुत पिछड़ी हुई थी. इलाके में स्कूल था नहीं और इसलिए दरबान सिंह नेगी भी पढ़ नहीं पाए.

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गांव और आसपास के लोग सेना में भर्ती होने वालों को किसी आइकॉन की तरह देखते थे और उनके बारे में चर्चे दूर तक होते थे. कोई उनके कद और सुंदरता की तारीफ करता तो कोई कारनामों की... दरबान सिंह भी इसे देखकर सुनकर ऐसे प्रभावित हुए कि 19 साल की उम्र में 4 मार्च 1902 को 39 गढ़वाल राइफल्स में राइफलमैन पद पर भर्ती हो गए. इस रेजिमेंट को तीसरी कुमाऊं यानी गोरखा राइफल्स की दूसरी बटालियन के तौर पर 1887 में बनाया गया था.

ला बासी में जर्मन सैनिकों से हुआ गढ़वाल रेजिमेंट का सामना

तब इस रेजिमेंट में सिर्फ राजपूत परिवारों से ही भर्तियां की जाती थीं. 20 अगस्त 1914 को ये बटालियन 7th (Meerut) Division का हिस्सा बनकर लैंसडाउन से कराची के लिए निकली. कराची से इसे यूरोपियन फ्रंट में शामिल होने के लिए फ्रांस पहुंचना था. बिना किसी मुश्किल के वे मध्य अक्टूबर में मार्सेई पहुंच गए थे. हथियारों से लैस होने के बाद वे ट्रेन से ऑर्लीस को रवाना हुए और लाइलर्स में ट्रेन से उतरकर रुई दि आइएपिनेत तक मार्च किया. वह पर खाइयों में कब्जे की पूरी तैयारियां थीं.

यहां बटालियन का स्वागत तेज बारिश और दुश्मन की 8 इंच की होवित्जर तोप के गोलों ने किया. वहां पर बटालियन ने ला बासी की जंग में भी हिस्सा लिया जो 2 नवंबर 1914 तक हुई. यहां बटालियन का सामना जर्मन सैनिकों से हुआ. कैप्टन एफ. लैंब और सैनिक अजित सिंह रावत के नेतृत्व में बटालियन के 16 सैनिक इस मोर्चे पर लड़े थे. यहां कई जर्मन सैनिक भाग खड़े हुए जबकि 6 को बंदी बना लिया गया.

कमांडिंग ऑफिसर कर्नल गॉर्डोन ने दी शाबाशी

अब आई 23 नवंबर की तारीख. फेस्टुबर्ट लाइन पर कब्जे की कोशिशें लगातार नाकाम हो रही थीं. जर्मन सेना ने ब्रिटिश सेना के मोर्चे का एक हिस्सा कब्जा लिया था और उस मोर्चे के दोनों किनारों पर सैनिक तैनात कर दिए थे. 2 लीसेस्टर्स के कमांडिंग ऑफिसर कर्नल गॉर्डोन लिखते हैं- गढ़वाली कमांडिंग ऑफिसर की रणनीति ने इतिहास रच दिया था. वे मोर्चे के किनारे से आगे बढ़ते हुए पूरे रास्ते लगातार गोलीबारी करते रहे और उन्होंने 100 से ज्यादा लोगों को बंदी बना लिया.

ये हमला देरी से शुरू हुआ. इसे 24 नवंबर को सुबह 3 बजे शुरू किया गया. उन्होंने एक किनारे से आगे बढ़ना शुरू किया. वे सुरंग के टेढ़े-मेढ़े घुमावदार रास्ते से हर एक मोड़ को कब्जाते, दुश्मनों पर गोलियों व हथगोलों की बरसात करते हुए तब तक आगे बढ़ते रहे, जब तक कि वे अपनी फौज से न मिल गए. बटालियन को एक गढ़वाली ऑफिसर और 19 दूसरे रैंक के सैनिकों को खोना पड़ा. 70 सैनिक घायल हुए. बटालियन को फेस्टुबर्ट युद्ध सम्मान दिया गया.

सुरंग पर कब्जे के दौरान सबसे आगे रहे दरबान सिंह नेगी

कार्रवाई 23-24 नवंबर की रात फेस्टुबर्ट के नजदीक शुरू हुई थी, जिसमें बटालियन दुश्मनों को सुरंग से हटाने और उसे वापस कब्जे में करने की कोशिश में लगी थी. दरबान सिंह नेगी सुरंग पर कब्जे के दौरान सबसे आगे रहे. युद्ध से पहले उन्हें प्रमोशन देकर नायक बना दिया गया था और युद्ध के बाद जो सम्मान मिला, उसने उन्हें अमर कर दिया. सुरंग पर कब्जे के दौरान दरबान सिंह सबसे आगे रहे. उन्होंने डटकर गोलों का भी सामना किया और गोलियों का भी.

दो बार सिर में और एक बार बांह में घाव हो जाने के बाद भी उन्होंने बिना यह बताए कि वे घायल हैं, लड़ना जारी रखा. जब लड़ाई खत्म हो गई और सैनिक इकट्ठा हुए, तब कमांडिंग ऑफिसर ने उनके पांस और सिर से खून रिसते देखा. असाधारण पराक्रम के लिए दरबान सिंह नेगी को विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया.

वे दूसरे भारतीय सिपाही बने जिन्हें विक्टोरिया क्रॉस दिया गया था. लंदन गजट में 7 दिसंबर 1914 को उन्हें दिए गए इस सम्मान के बारे में लिखा गया. 1856 में रानी विक्टोरिया ने इस सम्मान की शुरुआत की थी. इसे राष्ट्रमंडल सशस्त्र सेवा यानी ऐसे देश जहां ब्रिटेन का शासन रहा है वहां की सैनिकों को बहादुरी के लिए दिया जाता था.

उनसे पहले खुदादाद खान को यह सम्मान मिला था. खुदादाद ड्यूक ऑफ कनॉट्स ऑन बलूचीज के सिपाही थे. ये रेजिमेंट बंटवारे के बाद पाकिस्तानी सेना का हिस्सा बनी. खुदादाद खान को 31 अक्टूबर 1914 को विक्टोरिया क्रॉस मिला था.

विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित हुए दरबान सिंह नेगी

ब्रिटेन के महाराज ने दिसंबर 1914 को फ्रांस में भारतीय सेना की कोर का दौरा किया. दौरे के अंतिम दिन 5 दिसंबर 1914 को जनरल हेडक्वॉर्टर में राजा ने नायक दरबान सिंह नेगी, प्रथम बटालियन, 39वीं गढ़वाल राइफल्स को विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया. यह एक ऐतिहासिक क्षण था, ऐसा पहली बार हो रहा था जब किसी सैनिक को वीरता पुरस्कार स्वयं सम्राट ने दिया हो.

सम्मान समारोह के दौरान वह पल भी आया जब सम्राट ने नायक दरबान सिंह नेगी से उनकी किसी इच्छा के बारे में पूछा. तब दरबान सिंह नेगी ने विनम्रता से कहा कि उनके गांव के आसपास कोई स्कूल नहीं है, अगर कर्णप्रयाग में एक स्कूल खुल जाए, तो कई लोग पढ़ सकेंगे. इस आग्रह पर कर्णप्रयाग में 'वार मेमोरियल मिडिल स्कूल' नाम से एक विद्यालय की स्थापना की गई. यह आज के चमोली जिले का पहला विद्यालय था.

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दरबान सिंह नेगी को वायसराय कमीशंड ऑफिसर का पद दिया गया जिसे आज जूनियर कमीशंड ऑफिसर के पद से जाना जाता है. 24 जून 1950 को सूबेदार बहादुर दरबान सिंह नेगी ने चमोली जिले की तहसील थराली में अपने पैतृक गांव कफारतीर में अंतिम सांस ली.

चलते चलते 23 नवंबर को हुई दूसरी घटनाओं पर भी एक नजर डाल लेते हैं

1926: आध्यात्मिक गुरू सत्य साईं बाबा (Sathya Sai Baba) का जन्म हुआ
1937: फिजिसिस्ट, बायोलॉजिस्ट, बॉटनिस्ट जगदीश चंद्र बोस (Jagdish Chandra Bose) का निधन हुआ.
1996: इथियोपियाई एयरलाइंस (Ethiopian Airlines) की उड़ान संख्या 961 को हाईजैक कर लिया गया. ईंधन खत्म होने के बाद यह कोमोरोस के तट पर हिंद महासागर में क्रैश हो गई, जिसमें 125 लोग मारे गए.
1983: भारत में पहली बार राष्ट्रमंडल शिखर सम्मेलन का आयोजन हुआ
2009: फिलीपींन्स में 2009 में 32 मीडियाकर्मियों की हत्या

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