Major Dhyan Chand Biography : ध्यानचंद की टूटी स्टिक की न्यूजीलैंड में बरसों हुई पूजा | Jharokha 29 Aug

Updated : Sep 02, 2022 13:03
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Mukesh Kumar Tiwari

Major Dhyan Chand Biography : हॉकी प्लेयर ध्यानचंद (Hockey Player Major Dhyan Chand) और बॉलीवुड सिंगर केएल सहगल (Bollywood Singer KL Saigal) से जुड़ा एक रोचक किस्सा है... मशहूर फिल्म एक्टर पृथ्वीराज कपूर (Bollywood Actor Prithviraj Kapoor) हॉकी के जादूगर के जबरदस्त फैन थे. 1936 ओलंपिक खेलों (1936 Olympic Games) के बाद एक दिन पृथ्वीराज गायक सहगल को लेकर मुंबई में एक मैच देखने गए. इस मैच में ध्यानचंद और उनके भाई रूप सिंह (Dhyan Chand and Roop Singh) भी खेल रहे थे.

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मैच शुरू हुए जब ज्यादा वक्त बीत गया तो सहगल ने कहा कि, ये कैसे नामी खिलाड़ी हैं अब तक एक गोल नहीं कर पाए. यह बात रूप सिंह को पता चली तो उन्होंने सहगल से शर्त लगाई कि हम जितने गोल करेंगे उतने गाने क्या आप गाएंगे, सहगल ने हां कह दिया. बस फिर क्या ध्यानचंद और रूप सिंह ने मिलकर मैच में 12 गोल दागे. लेखक निकेत भूषण की किताब 'ध्यानचंद द लीजेंड लिव्स ऑन' (Dhyan Chand: The legend lives on) में इस घटना का जिक्र है. 

मैच खत्म होने के बाद सहगल अपने वादे से मुकर गए और बिना गाना गए घर चले गए, इस बात से ध्यानचंद काफी नाराज हुए. मगर अगले दिन केएल सहगल खुद भारतीय हॉकी टीम के पास आए और वहां उन्होंने 14 गाने गए. आज की तारीख का संबंध भी हॉकी के इसी जादूगर मेजर ध्यानचंद से है... 29 अगस्त 1905 को ही जन्म हुआ था हॉकी के जादूगर ध्यानचंद का... आज झरोखा में हम जानेंगे ध्यानचंद की जिंदगी के अनसुने किस्सों को... 

16 साल की उम्र में सेना में भर्ती हो गए थे ध्यानचंद

साधारण शिक्षा पाने के बाद ध्यानचंद साल 1922 में 16 साल की उम्र में सेना में सिपाही के तौर पर भर्ती हो गए थे. जब वे फर्स्ट ब्राह्मण रेजिमेंट (1st Brahmans) का हिस्सा बने, तब तक उनके मन में हॉकी को लेकर कोई रुचि न थी. उन दिनों सेना में हॉकी व फुटबॉल जैसे खेलों का चलन ज्यादा था... अंग्रेज व भारतीय खिलाड़ी बड़े अभ्यास के बाद खेलते और मैचों में मिली जीत प्रतिष्ठा का प्रश्न हुआ करती थी...

तब ध्यान सिंह, ध्यानचंद कैसे बने... यह किस्सा भी रोचक है. उन्होंने सेना में खेले जाने वाले हॉकी के खेल को देखा तो इसके प्रति जिज्ञासा स्वाभाविक थी लेकिन वे तो ठहरे नौसिखिया... उन्हें तो सही से हॉकी स्टिक भी पकड़नी नहीं आती थी. भले ही पेड़ों की टहनियों से गेंद को ठोकर लगाते हुए खेला हो लेकिन हॉकी के स्तरीय खेल से उनका कोई रिश्ता नहीं था...

सूबेदार बाले तिवारी बने ध्यानचंद के पहले गुरू

ध्यानचंद की मदद के लिए आगे आए सूबेदार बाले तिवारी... वही आगे चलकर उनके पहले खेल गुरू व कोच भी बने. बाले तिवारी ने उन्हें हॉकी खेलने के लिए प्रोत्साहित किया... और कुछ ही दिनों का अभ्यास देखने के बाद वे जान गए कि अगर ध्यानचंद को उचित ट्रेनिंग व प्रेरणा मिले तो वे हॉकी के खेल को नए आयाम दे सकते हैं. 

ध्यानचंद तब ध्यानसिंह कहे जाते थे... उन्होंने भी बाले तिवारी की हर बात को गुरू का कहा वाक्य मान लिया. बाले तिवारी से कई दूसरे जवान भी सीखते थे, लेकिन ध्यानचंद की बात और थी. बाकी जवान आराम का बहाना तलाशते लेकिन ध्यानसिंह चंद्रमा की रोशनी में मैदान में अभ्यास करते दिखाई देते थे. दोस्त हॉकी स्टिक को ध्यान चंद की प्रेमिका कहने लगे थे...

बाले तिवारी ने दिया ध्यानचंद नाम

बाले, ध्यानचंद को करीबी से मैदान में हॉकी की नई तकनीकों का अभ्यास करते देखते रहते थे. एक दिन वे उनके पास गए... बोले, ध्यानसिंह तुम अच्छा खेलते हो, लेकिन एक बात गांठ बांध लो. अगर एक संपूर्ण खिलाड़ी बनना चाहते हो तो दूसरो को भी पास देना सीखो... बाले ने ध्यानसिंह के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और कहा- जिस तरह तुम चंद्रमा की रोशनी में हॉकी का अभ्यास करते हो, उसी तरह एक दिन हॉकी का चंद्रमा बनकर चमकोगे.

मैं आज से तुम्हें ध्यानसिंह की जगह, ध्यानचंद कहकर बुलाउंगा... तभी से ध्यानसिंह ध्यानचंद कहलाए जाने लगे.

1926 न्यूजीलैंड दौरे ने बदल डाली तकदीर

फिर आया साल 1926 का दौर... ध्यानचंद को साथियों से पता चला कि भारतीय सेना हॉकी टीम को न्यूजीलैंड भेजने पर विचार कर रही है... ध्यानचंद के मन में भी इस टीम में शामिल होने की चाहत जग उठी थी लेकिन मन मसोसकर वह खेलने में ही जुटे रहे... एक एक करके सलेक्टेड हुए जवानों का नाम सामने आने लगा... एक दिन अचानक कमांडिंग ऑफिसर का संदेश आया कि वे ध्यानचंद से मिलना चाहते हैं.

ध्यानचंद तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि उन्हें क्यों बुलाया गया है. जब वे वहां पहुंचे तो उस अधिकारी ने कहा- जवान! तुम हॉकी खेलने के लिए न्यूजीलैंड जा रहे हो. ये वह क्षण थे जब ध्यानचंद के मुंह से कुछ नहीं निकला... और इस लम्हें ने ही एक ऐसे खिलाड़ी को चुन लिया था, जिसे आने वाला दौर हॉकी का जादूगर के नाम से जानने वाली थी...

टूर के दौरान, भारतीय टीम ने Dunkerque में खेले गए मैच में 20 गोल दागे और इसमें ध्यानचंद ने अकेले 10 गोल किए. भारतीय टीम ने 21 मैच खेले जिसमें से 18 उसने जीते, 1 में टीम हारी और 2 मैच ड्रॉ किए.  भारतीय टीम ने पूरे टूर्नामेंट में 192 गोल किए जिसमें से अकेले ध्यानचंद ने 100 से ज्यादा गोल किए थे. उनका नाम हर तरफ छा चुका था.

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ध्यानचंद ने अपनी प्रतिभा के बल पर अंग्रेजों को दिखा दिया था कि भले ही उन्होंने भारतीयों को गुलाम बना रखा हो लेकिन हॉकी के खेल में वे उनसे कहीं आगे हैं और उनके इस स्वाभिमान को डिगाने की ताकत किसी में नहीं है. 

1928 ओलंपिक में ध्यानचंद का लोहा दुनिया ने माना (Dhyan Chand Achievements)

इसके बाद 14 अप्रैल 1928 (1928 Olympics) को भारतीय हॉकी टीम एम्सटर्डम पहुंची. इस बार ओलंपिक में 9 देश थे- भारत, जर्मनी, हॉलैंड, बेल्जियम, ऑस्ट्रेलिया, डेनमार्क, फ्रांस, स्विट्जरलैंड व स्पेन. उन्हें दो पूलों में बांटा गया... भारत को 17 मई को अपना जौहर दिखाने का मौका मिला... भारत ने ऑस्ट्रेलिया को 6 गोलों से हरा दिया. इसमें 4 गोल ध्यानचंद के थे और बाकी एक एक गोल गेटले और शौकत अली के थे. इसके बाद भारत ने 18 मई को बेल्जियम को 9 गोलों से हराया... 20 मई को डेनमार्क को 5 गोल से हराया. 

22 मई को सेमीफाइनल में स्विट्जरलैंड को धूल चटा दी.  अब फाइनल की घड़ी आ चुकी थी... हॉलैंड के खिलाफ फाइनल से पहले हालात बदल गए थे. फिरोज खान, शौकत अली, खेरसिंह बीमार होने की वजह से खेलने में सक्षम नहीं थे. ध्यानचंद भी बीमार थे. उन्हें भी तेज बुखार था...

टीम मैनेजर ने ध्यानचंद से दबे मन से कहा- तुम चाहो तो कल का मैच मत खेलो... ध्याचंद ने कहा कि सर मैं एक सिपाही हूं और एक जवान का पहला कर्तव्य देश की मान मर्यादा की रक्षा करना होता है... आज भले ही हम युद्ध के मैदान में नहीं लेकिन मेरी प्रतिष्ठा दांव पर है...

मैच हुआ तो 50 हजार दर्शक आंखे गाड़े मुकाबले को देख रहे थे. भारत ने मुकाबले में हॉलैंड को 3-0 से हरा दिया. इसमें 2 गोल ध्यानचंद ने किए थे.

26 मई 1928 को पूरी दुनिया ने भारत को हॉकी का सिरमौर माना... एक पत्रकार ने भारत की विजय का वर्णन करते हुए लिखा- यह कोई हॉकी का खेल नहीं, यह तो जैसा जादू था... दरअसल, ध्यानचंद हॉकी के जादूगर हैं... 29 मई को भारतीय टीम ने स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रच दिया...

1932 और 1936 ओलंपिक में भी ध्यानचंद का चला जादू

ध्यानचंद ने 1928 के बाद 1932 और 1936 ओलंपिक में भारत को हॉकी का गोल्ड दिलाने में अहम रोल निभाया... 1928 और 1932 के ओलंपिक खेलों के बाद, ध्यानचंद ने बर्लिन में 1936 के ओलंपिक में भारतीय टीम की कप्तानी की. फाइनल मैच में भारत ने जर्मनी को 8-1 से हराया जिसमें से 3 गोल अकेले ध्यानचंद ने किए. 

न्यूजीलैंड में बेटे अशोक कुमार ने देखा ध्यानचंद का तिलिस्म

अब आते हैं वापस 1926 के न्यूजीलैंड दौरे पर... इस दौरे के 50 साल बाद ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार (Dhyanchand Son Ashok Kumar) न्यूजीलैंड के दौरे पर गए... तब वह यह देखकर दंग रह गए थे कि हॉकी क्लबों में उनके पिता के 1926 के आर्मी टूर की तस्वीरें थी... एक मौके पर, ध्यानचंद के एक प्रशंसक ने अशोक को हॉकी लीजेंड की तस्वीरें दिखाई जिसे उन्होंने सालों से इकट्ठा किया था... अशोक ने एक और वाकया देखा जो उनके दिल को छू गया.

ये भी देखें- History of Kolkata: जब 'कलकत्ता' बसाने वाले Job Charnock को हुआ हिंदू लड़की से प्यार!

एक शख्स उनके पास आया और उन्हें लकड़ी के कुछ टुकड़े दिखाए... ये टुकड़े ध्यानचंद की हॉकी स्टिक के थे... 1926 के आर्मी टूर में ध्यानचंद की स्टिक टूट गई थी और तब खिलाड़ी ने उसे कहीं छोड़ दिया था...लेकिन फैन ने न सिर्फ उसे सहेजा बल्कि उसके टुकड़े बाकी कई लोग भी उनसे ले गए...

भारत सरकार ध्यानचंद के जन्मदिन को खेल दिवस (National Sports Day) के रूप में मनाती है... खेल दिवस के मौके पर देश के राष्ट्रपति द्रोणाचार्य, मेजर ध्यानचंद और अर्जुन अवॉर्ड देकर खिलाड़ियों को सम्मानित करते हैं. राष्ट्रपति भवन में सभी खिलाड़ी और कोचों को पुरस्कार से नवाजा जाता है...

चलते चलते आज की दूसरी घटनाओं पर भी एक नजर डाल लेते हैं

1612 - सूरत की लड़ाई (Battle of Swally) में अंग्रेजों ने पुर्तग़ालियों को हराया

1887 - गुजरात के पहले मुख्यमंत्री जीवराज नारायण मेहता (Jivraj Narayan Mehta) का जन्म हुआ

1959 - फिल्म अभिनेता नागार्जुन (Film Actor Nagarjuna) का जन्म हुआ

Major Dhyan ChandHockey

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