युसूफ खान... दिलीप कुमार... थेस्पियन... लेजेंड... द फर्स्ट खान... ट्रैजेडी किंग...
करोड़ो फैंस के दिलों पर राज करने वाले हिंदी सिनेमा के एक दिग्गज कलाकार के ये वो नाम हैं जिन्होंने भारत में एक्टिंग को एक नया आयाम दिया. उनकी अदाकारी में ग़ज़ब की इंटेसिटी थी, वो ठहराव था जो उससे पहले लोगों ने नहीं देखा था. दिलीप साहब का अपने रोल में रम जाना इतना नैचुरल था कि लोगों के बीच वो देखते ही देखते स्टार बन गए. 1950 और 60 के दशक में दिलीप साहब ने अपनी अदाकारी के दम से भारतीय सिनेमा में एक्टिंग की एक नई इबारत लिखी जो आज भी एक्टर्स के लिए मिसाल है.
पेशावर से बंबई
1922 में पेशावर में पैदा हुए यूसुफ खान का परिवार 1930 के शुरुआती सालों में बंबई आ गया. पिता अपने फल के कारोबार को बढ़ाने के लिए यहां आए थे. नासिक में भी उनका फलों का बाग था, यहीं दिलीप कुमार ने स्कूली तालीम हासिल की. राजकपूर उनके पड़ोसी और बचपन के दोस्त थे.
कैंटीन वाले दिलीप कुमार
1940 के दशक की शुरुआत में एक दिन पिता से किसी बात पर उनकी कहा सुनी हो गई, और दिलीप साहब घर छोड़कर निकल पड़े. उन्हें पुणे के ब्रिटिश आर्मी कैंटीन में असिस्टेंट की नौकरी मिल गई. वहीं, उन्होंने अपना सैंडविच काउंटर खोला जो अंग्रेजी सैनिकों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हो गया था. हालांकि ये नौकरी ज्यादा दिन नहीं चल सकी. इसी कैंटीन में एक दिन एक आयोजन में भारत की आज़ादी की लड़ाई का समर्थन करने के चलते उन्हें गिरफ़्तार होना पड़ा और उनका काम बंद हो गया. इसके बाद वो अपने पिता के पास वापस लौट आए.
फिल्मी सफर की शुरुआत
एक दिन काम के सिलसिले में दिलीप साहब चर्चगेट स्टेशन पर लोकल ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे. यहां उनकी मुलाकात पारिवारिक मित्र और जाने माने साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर मसानी से हुई. डॉक्टर मसानी 'बॉम्बे टॉकीज' की मालकिन देविका रानी से मिलने जा रहे थे. वो मना करने के बावजूद यूसुफ खान को देविका से मिलाने ले गए.
ये साल 1943 की बात है. देविका रानी दिलीप साहब को देखते ही उनसे इम्प्रेस हो गईं, और उन्हें बॉम्बे टॉकीज में 1250 रुपये महीने की नौकरी का ऑफ़र दे दिया. उस जमाने में 1250 रुपए काफी अच्छी रकम थी. लेकिन अभिनय में अनुभव न होने की बात कह कर दिलीप कुमार ने देविका का ये ऑफर लेने से इनकार कर दिया. पर देविका और डॉक्टर मसानी के इसरार करने पर उन्होंने ये ऑफर कुबूला और बॉम्बे टॉकीज का हिस्सा बन गए.
यूसुफ़ खान बने दिलीप कुमार
देविका रानी ने ही उनका नाम यूसुफ खान से बदलकर दिलीप कुमार करने को कहा था, और साल 1944 में फिल्म 'ज्वार भाटा' के साथ दिलीप कुमार के फिल्मी सफर की शुरुआत हुई. दिलीप साहब का ये सफर करीब 5 दशक लंबा रहा, जिसमें उन्होंने 65 फिल्में कीं.
साल 1947 में एक्ट्रेस नूर जहां के साथ आई ‘जुगनू’ उनकी पहली हिट फिल्म थी. लेकिन 1949 में महबूब खान की फिल्म ‘अंदाज’ उनके करियर का टर्निंग प्वाइंट साबित हुई. इसमें राजकपूर और नरगिस भी थे.
1950 का दशक
इस दशक में दिलीप कुमार ने एक के बाद एक कई बड़ी हिट फिल्में दीं. साल 1950 में जोगन, 1951 में दीदार, 1952 में दाग़, 1953 में शिकस्त, 1954 में अमर, 1957 में नया दौर.
50 के दशक की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली 30 फिल्मों में से अकेले दिलीप साहब की 9 फिल्में थीं. उस दशक में वो पहले हीरो थे जो 1 फिल्म के लिए 1 लाख रुपए बतौर फीस लेते थे.
ट्रैजेडी किंग का खिताब
इस दौर में आई दीदार, दाग़, तराना, फुटपाथ, अमर और देवदास जैसी फिल्मों में अपने इंटेंस अभिनय की वजह से दिलीप कुमार को ट्रैजेंडी किंग का खिताब मिल गया.
मुग़ल-ए-आज़म
लेकिन 1960 में रिलीज हुई के आसिफ की मुग़ले आज़म ने इस ट्रैजेडी किंग के करियर को और चार चांद लगा दिए. मुगलिया सल्तनत के बैकड्रॉप पर बनी इस लव स्टोरी ने कमाई के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले. ( Good posters/stills of Dilip Kr from film)
1960 का दशक
1960 के दशक की उनकी कुछ और बेहतरीन फिल्में हैं ... 1961 में आई गंगा जमुना जो उनकी खुद की प्रोड्यूस की हुई इकलौती फिल्म है. इसके बाद उनके डबल रोल वाली फिल्म राम और श्याम भी सुपरहिट साबित हुई. (Posters)
मशहूर ब्रिटिश डायरेक्टर डेविड लीन ने Lawrence of Arabia का मेन रोल उन्हें ऑफर किया था, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया. बाद में अपनी बायोग्राफी में दिलीप साहब ने लिखा कि ओमर शरीफ ने उस किरदार को बहुत अच्छे से निभाया, शायद वो उतना अच्छा काम नहीं कर पाते.
इश्क़ और शादी
यूं तो दिलीप कुमार और मधुबाला के इश्क के किस्से काफी चर्चा में रहे. वैजयंती माला के साथ भी अफेयर की खबरें रहीं, लेकिन उन्होंने साल 1966 में खुद से 22 साल छोटी सायरा बानो से शादी की. इन दोनों के मजबूत रिश्ते और प्यार की कहानी आज भी लोगों के लिए मिसाल है. दिलचस्प बात यह है कि दिलीप कुमार ने शुरू में सायरा बानो के साथ काम करने से मना कर दिया था, ये कहते हुए कि वो उनसे काफी छोटी हैं और वो सहज महसूस नहीं करते. लेकिन सायरा की मोहब्बत उनकी इस झिझक पर भारी पड़ी और आखिरकार उन्होंने उनसे शादी कर ही ली.
1970 का दशक
1970 का दशक दिलीप कुमार के लिए कुछ खास नहीं रहा. हालांकि साल 1970 में उन्होंने पत्नी सायरा बानो के साथ पहली फिल्म की, नाम था गोपी. इसी साल दोनों की एक बंगाली फिल्म भी आई. 1976 में रिलीज हुई फिल्म बैराग में उन्होंने ट्रिपल रोल निभाया था.
एक्टिंग से ब्रेक
साल 1976 में उन्होंने एक्टिंग से करीब 5 साल का ब्रेक लिया और फिर 1981 में फिल्म क्रांति के साथ धमाकेदार वापसी की. इसके बाद 1982 में विधाता और शक्ति में जोरदार रोल निभाया. शक्ति के लिए उन्हें 8वां बेस्ट एक्टर फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला था. 1984 में आई मशाल में उनकी एक्टिंग की काफी तारीफ हुई. फिर 1986 में कर्मा तो 1991 में सौदागर जैसी बेहतरीन फिल्में उन्होंने दीं. उनकी आखिरी फिल्म थी साल 1998 में आई क़िला.
अवॉर्ड्स का रिकॉर्ड
दिलीप कुमार फिल्मफेयर का बेस्ट एक्टर अवॉर्ड पाने वाले पहले एक्टर हैं. साल 1952 में फिल्म दाग़ के लिए उन्हें ये सम्मान मिला था. (Use Pics) फिर तो बेस्ट एक्टर अवॉर्ड्स की झड़ी लग गई. उन्होंने अपने शानदार करियर में 8 बार फिल्मफेयर का बेस्ट एक्टर अवॉर्ड जीता है, जो कि रिकॉर्ड है.
अपने लंबे और शानदार फिल्मी करियर के दौरान दिलीप साहब को कई अवॉर्ड्स से नवाजा गया. वो सबसे ज्यादा अवॉर्ड्स जीतने वाले भारतीय अभिनेता हैं. 1991 में पद्म भूषण, 1994 में दादासाहेब फाल्के अवॉर्ड और 2015 में पद्म विभूषण. भारत ही नहीं पाकिस्तान ने भी उन्हें अपने सबसे प्रतिष्ठित नागरिक पुरस्कार निशा-ए-इम्तियाज़ से 1998 में सम्मानित किया.
1980 में दिलीप साहब बॉम्बे के शेरिफ भी रह चुके हैं, और साल 2000 से 2006 के बीच राज्यसभा के मनोनीत सांसद भी. बॉम्बे का मशहूर जॉगर्स पार्क उनकी ही देन है.
दिलीप कुमार यानि अभिनय का हमनाम, वो नाम जिसने हिंदी सिनेमा में अभिनय को नई दशा और दिशा दी.