हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज-ए-बयां कुछ और
मिर्जा असद-उल्लाह खां ग़ालिब का अंदाज ए बयां यूं ही सबसे अलग नहीं है. तारीफ हो या बुराई, ग़ालिब कभी किसी को कुछ कहने से चूकने वालों में नहीं थे. यहां तक कि अपने बारे में भी कुछ कहने में वो कोई कोताही नहीं करते थे...
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था
इश्क़ से लेकर सियासत तक जिंदगी के हर पहलू को छूने वाले उनके अशार आज भी लोगों के ज़हन में ताज़ा हैं. यही वजह है कि 27 दिसंबर 1797 को आगरा में पैदा हुए ग़ालिब के अशार उस जमाने के ही नहीं बल्कि आज के शायरों पर भी ग़ालिब हैं. अपने जज्बातों को कलम करना उन्होंने बचपन में ही सीख लिया था, महज 11 साल की उम्र में जो लफ्ज गालिब ने अपने कलम से कागज पर उतारे थे वो आज भी लोगों की जुबां पर रवा हैं. उनके मिस्रे हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में चहलकदमी करते मिल जाते हैं.
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब की उर्दू और फारसी पर जबरदस्त पकड़ थी. 19वीं और 20वीं सदी में उनकी शोहत भारत के अलावा अरब समेत दूसरे देशों में भी दूर-दूर तक थी. मुगल सल्तनत में उन्हें कई शाही खिताबों से भी नवाजा गया. गालिब की शायरी ऐसा समंदर है जिस पर चाहे जितना लिखें कम है. उनकी शायरी में जो तड़प और कशिश है वो सुनने वालों के दिल को छू लेती है. आएये उनके लिखे चंद मशहूर शेर आपको सुनाते हैं...
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
उन के देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक,
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुम को मगर नहीं आती
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है
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