Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसे शख्स को हत्या के आरोप से बरी किया है, जिसपर 40 साल पहले इस मामले में केस दर्ज हुआ था. कोर्ट ने कहा कि सिर्फ इकबालिया बयान के आधार पर उसकी दोषसिद्धि को बरकरार नहीं रखा जा सकता क्योंकि यह कमजोर सबूत है.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालत से बाहर अपराध का कबूलनामा संदिग्ध होता है. कोर्ट ने कहा कि इससे बयान की विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाती है और वह अपना महत्व खो देती है.
हत्या का यह मामला 11 मार्च, 1983 को पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले में सामने आया था. निचली अदालत ने 31 मार्च, 1987 को आरोपी निखिल चंद्र को उसकी पत्नी की हत्या के बरी कर दिया था.
निचली अदालत के फैसले के खिलाफ राज्य सरकार ने हाई कोर्ट का रुख किया था. दिसंबर, 2008 में कलकत्ता हाई कोर्ट ने निखिल को दोषी ठहराया और आजीवन कारावास की सजा दी.
निखिल ने अपनी दोषसिद्धि और सजा के खिलाफ 2010 में शीर्ष अदालत में याचिका दायर की थी, जिस पर शुक्रवार को फैसला हुआ. न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति संजय करोल की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि हाई कोर्ट का आदेश रद्द किया जाता है.
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