Why Youth Becoming Jain Saints : हाल ही में, सूरत के बड़े हीरा कारोबारी धनेश संघवी (Devanshi Sanghvi) की बिटिया देवांशी संघवी दीक्षा लेकर साध्वी दिगंतप्रज्ञाश्री बन गईं. उन्होंने 35 हजार लोगों की मौजूदगी में दीक्षा ग्रहण की. देवांशी ही नहीं, नन्हें बच्चों की लंबी सूची है जो हाल में जैन संन्यासी (Jain Saint) बन चुके हैं या बन रहे हैं.... बच्चों का संन्यास की ओर जाना जहां कई सवाल खड़े कर रहा है, वहीं युवाओं में भी ये प्रवृति देखी जा रही है... मुंबई जैसे महानगर में जहां कुछ साल पहले बमुश्किल 10-15 लोग ही हर वर्ष दीक्षा (Jain Saint Diksha) लिया करते थे, आज यह आंकड़ा 400 प्रतिवर्ष तक जा पहुंचा है.
अब बड़ा सवाल ये है कि आखिर ऐसा क्या है जो बच्चों को इस मॉडर्न और चमक धमक भरी दुनिया से दूर ले जा रहे है और वो कम उम्र में ही संन्यास (Jain Saint) जैसे कठोर जीवन को चुन रहे हैं? इस नए जीवन में उन्हें नंगे पांव रहना होगा, सिर्फ भिक्षा में मिली चीजों का ही सेवन करना होगा, कभी स्नान नहीं करना होगा, कभी पंखे के नीचे नहीं सोना होगा और न ही मॉडर्न टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करना होगा.
दरअसल, जैन धर्म (Jain Religion) को मानने वाला परिवार, संतान को संन्यासी (Jain Saint) बनाकर खुद की ओर से इसे धर्म के प्रति किया गया अर्पण समझता है. माता-पिता अपने बच्चे को ये समझा पाने में कामयाब रहते हैं कि यही सच्चा रास्ता है.. हालांकि इसपर बाल अधिकारों के लिए कार्य करने वाले संगठनों (Child Rights NGO) की भौहें तनी रहती हैं...
सूरत चिल्ड्रेन वेल्फेयर कमिटी (Surat Children Welfare Organization) के सदस्य ऐसे ही एक परिवार के पास पहुंचे थे, ताकि इस धार्मिक परंपरा को रुकवाया जा सके लेकिन माता-पिता ने एक एफिडेविट पर साइन किया था जिसपर लिखा था कि जो भी हो रहा है वह उन्हीं का फैसला है. वह इसकी पूरी जिम्मेदारी लेते हैं... सच यही है कानून की सीमाएं भी वहां खत्म हो जाती हैं जहां से धर्म का रास्ता शुरू होता है...
सारथी ट्रस्ट (Saarthi Trust) की चाइल्ड राइट एक्टिविस्ट डॉ. कृति भारती ने She The People को बताया कि हम बच्चों को बेहद कम उम्र में वोट देने और शादी करने की अनुमति नहीं देते हैं और सभी जरूरी फैसले लेने में काबिल होने के लिए किसी को भी 18 वर्ष की उम्र का होना चाहिए... तो फिर हम इतनी कम उम्र में बच्चों को संन्यासी कैसे बनने दे रहे हैं?
अब अगर बात करें नौजवानों की... वो उनकी लिस्ट भी बहुत लंबी है...
जैन समाज के धार्मिक गुरू मानते हैं कि मॉडर्न लाइफस्टाइल जहां सुख सुविधाएं लेकर आई है, तो वहीं समाज में एक खाई को भी इसने पैदा कर दिया है. आज एक शख्स चुटकियों में यूरोप और अमेरिका तक की हलचल जान सकता है. टेक्नोलॉजी ने ये सुविधा तो दी है लेकिन साथ में उसके कॉम्पिटिशन का दायरा भी बड़ा कर दिया है... सालों पहले कॉम्पिटिशन गली मोहल्ले में होते थे लेकिन अब दुनिया से होते हैं... युवावर्ग तनाव और प्रेशर में जिंदगी को जीने लगा है.
मुंबई यूनिवर्सिटी में जैन फिलॉस्पी पढ़ाने वाले डॉ. बिपिन दोषी ने BBC को बताया था- दुनियादारी से परेशान यही नौजवान जब एक बार दीक्षा ले लेते हैं, तो अध्यात्म का स्तर, सामाजिक प्रभाव बढ़ जाता है... धनाढ्य लोग भी आकर उनके आगे नतमस्तक होने लगते हैं.
10 साल पहले तक जैन, अर्ध मागधी या संस्कृत की प्राचीन भारतीय भाषाओं में लिखे साहित्य पर निर्भर थे. अब, धार्मिक साहित्य कई भाषाओं, खासकर अंग्रेजी में भी उपलब्ध होने लगा है.
जैन धर्म की कहानियां अब शॉर्ट फिल्म बनकर सोशल मीडिया पर भी अवेलेबल हैं. वॉट्सऐप पर इनका सर्कुलेशन हो रहा है... Youtube जैसे प्लेटफॉर्म पर मुनियों के कार्यक्रम लाखों युवा देख पा रहे हैं और जैन धर्म के कई चैनल भी आ गए हैं...
इन्हीं सब बातों से युवा जैन साहित्य के और भी करीब आए हैं...
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